जहाँ उपमाएं भी लज्जित हो गईं – श्रीकृष्ण की अनुपम शोभा का सूर-काव्य
🌸 पद:
“उपमा हरि तनु देखि लजानी।
कोउ जल मैं कोउ बननि रहीं दुरि कोउ कोउ गगन समानी॥”
✨ विस्तृत भावार्थ:
सूरदास जी अपने इस पद में भगवान श्रीकृष्ण की अनुपम शोभा का ऐसा वर्णन करते हैं, जहाँ सृष्टि की समस्त उपमाएं स्वयं को व्यर्थ मानकर लज्जित हो जाती हैं और लुप्त हो जाती हैं। श्रीकृष्ण की देह की ऐसी तेजस्विता है कि कोई उपमा जल में छिप जाती है, कोई वन की गहराइयों में चली जाती है, और कोई आकाश में समा जाती है।
उनका मुखमंडल ऐसा तेजस्वी है कि चंद्रमा जो शीतलता और सुंदरता का प्रतीक माना जाता है, उसे देखकर स्वयं को हीन समझकर आकाश की ओर चला जाता है। श्रीकृष्ण के दंतों की कान्ति देखकर बिजली भी लज्जित होकर अपनी चमक को समेट लेती है।
भगवान के कर, चरण और नेत्रों की शोभा से भयभीत होकर मीन (मछली) और कमल भी जल में ही बसेरा कर लेते हैं। उनके भुजाओं की शोभा को देखकर सर्पराज अहिराज (शेषनाग) भी संकोचवश अपने बिल में जा छिपता है। उनकी कटि (कमर) की मनोहरता देखकर सिंह जैसे वनराज को भी भय लगता है और वह दूर जंगलों में जा छिपता है।

📚 काव्य की विशेषता:
यह पद न केवल श्रीकृष्ण की रूप माधुरी को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि “जब परम सौंदर्य स्वयं साकार होता है, तो प्रकृति की सारी उपमाएं भी नतमस्तक हो जाती हैं।” कवियों द्वारा दी जाने वाली उपमाएं भी अपने सामर्थ्य की सीमाओं को पहचानती हैं और चुप हो जाती हैं। सूरदास जी अंत में कहते हैं कि ऐसे सौंदर्य की वाणी द्वारा प्रशंसा करते हुए भी उन्हें संकोच होता है कि वे अपने शब्दों से उस अनुपम रूप का अपमान न कर दें।
💫 आध्यात्मिक संदेश:
यह पद भक्तों को यह सिखाता है कि ईश्वर का सौंदर्य केवल आँखों से नहीं, हृदय से अनुभूत किया जा सकता है। जहाँ बाह्य जगत की उपमाएं भी लज्जित हों, वहाँ भक्त की श्रद्धा ही एकमात्र सच्चा वर्णन बन जाती है। सूरदास जैसे संत जब लज्जा अनुभव करते हैं, तो साधारण मनुष्य को यह प्रेरणा मिलती है कि परमात्मा की महिमा शब्दातीत है — उसे केवल प्रेम और भक्ति से ही जाना जा सकता है।

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