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श्री नरोत्तम दास ठाकुर जी – Shri Narottam Das Thakur ji

श्री नरोत्तम दास ठाकुर जी का जीवन अद्वितीय भक्ति और त्याग का सजीव उदाहरण है। उनके जन्म, वैराग्य, और अंत समय की कथा हृदय को भावविभोर कर देती है।

1531 ई. में माघ पूर्णिमा के दिन पद्मावती नदी के किनारे खेतुरी ग्राम में, श्री कृष्णानंद दत्त मजुमदार और नारायणी देवी के यहाँ ठाकुर श्री नरोत्तम दास जी का जन्म हुआ। कहा जाता है कि नारायणी देवी ने पुत्र जन्म के समय अद्भुत दृश्य देखा था। श्री गौरांग महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु और अद्वैताचार्य जी सहित अनेक महापुरुष उनके समक्ष नृत्य कर रहे थे। इसे श्रीनिवासाचार्य जी ने इस प्रकार वर्णित किया:

‘गौर नित्यानन्दाद्वैता गणेर सहित।
नृत्य कैला, नारायणी देखिल साक्षाते।।
ऐछे भाग्यवती नाही नारायणी सम।
याँर गर्भे जन्मिला ठाकुर नरोत्तम।।’

अर्थात: श्री गौरांग महाप्रभु, नित्यानंद प्रभु और अद्वैताचार्य आदि महापुरुषों ने नृत्य किया, और यह दृश्य नारायणी देवी ने साक्षात देखा। नारायणी देवी जैसा भाग्यवान कोई नहीं, क्योंकि उनके गर्भ से ठाकुर नरोत्तम का जन्म हुआ।

श्री नरोत्तम ठाकुर जी बाल्यकाल से ही संसार के प्रति विरक्त थे। उनके परिवार में अपार ऐश्वर्य था, सभी प्रकार के भौतिक सुख-सुविधाएँ थीं, परंतु उनका मन इनमें नहीं लगता था। वे वैष्णव संतों से श्री गौरांग महाप्रभु की लीलाओं का श्रवण करते रहते थे। जब वे श्री रूप, श्री सनातन और श्री रघुनाथ दास गोस्वामी के त्याग और वैराग्य की कथाएँ सुनते, तो उनके हृदय में भी संसार त्यागने का विचार पक्का हो जाता।

महाप्रभु के दर्शन और वैराग्य की प्राप्ति

एक दिन ठाकुर जी पद्मावती नदी में स्नान करने गए। अचानक एक गौर वर्ण बालक नृत्य और कीर्तन करते हुए उनके निकट आया और उनके शरीर में समा गया। ठाकुर जी अपने दोनों हाथ उठाकर नृत्य करने लगे। जब यह घटना उन्होंने अपनी माँ को बताई, तो माँ बहुत चिंतित हो गईं और उन्होंने ओझाओं को बुलाकर इस स्थिति से छुटकारा दिलाने का प्रयास किया, परंतु कोई भी उपाय काम नहीं आया।

कुछ समय बाद, ठाकुर नरोत्तम ने ब्रज धाम की ओर प्रस्थान किया। वहाँ वे श्री लोकनाथ गोस्वामी जी के चरणों में समर्पित हो गए, परंतु जब उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री लोकनाथ गोस्वामी किसी को भी शिष्य नहीं बनाते, तो वे धर्म संकट में पड़ गए।

गुरु सेवा और दीक्षा

श्री लोकनाथ गोस्वामी जी प्रतिदिन यमुना स्नान को जाते थे। ठाकुर नरोत्तम ने उनकी छिपकर सेवा करनी शुरू कर दी। वे उस स्थान को साफ करते जहाँ श्री लोकनाथ जी शौच के लिए जाते थे, मार्ग को साफ करते, और उनके लिए हाथ धोने की मिट्टी भी लाकर रखते थे। जब गोस्वामी जी को यह सब पता चला, तो उनकी कृपा से उन्होंने अपने नियम का भंग कर ठाकुर नरोत्तम को मंत्र दीक्षा दे दी।

श्री गौरांग-विष्णुप्रिया विग्रह प्रतिष्ठा

श्री नरोत्तम ठाकुर के मन में श्री गौरांग महाप्रभु और विष्णुप्रिया जी के श्रीविग्रह स्थापित करने की प्रबल इच्छा थी। अतः उन्होंने अष्टधातु से बनी श्री गौरांग और विष्णुप्रिया की मूर्ति का निर्माण करवाया और विग्रह स्थापना का महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाने का विचार किया। इसके लिए वे श्रीनिवासाचार्य जी को बुलाने स्वयं गए और उनसे प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य करवाया।

फाल्गुन पूर्णिमा के दिन, हजारों की संख्या में भक्त वृंद एकत्रित हुआ। श्रीनिवासाचार्य जी ने प्राण-प्रतिष्ठा सम्पन्न की और अद्भुत संकीर्तन प्रारंभ हुआ। उस कीर्तन में उपस्थित सभी भक्तजन भावविभोर हो गए। उनके अश्रुपात, पुलक, और अन्य दैविक गुण प्रकट हो गए, और किसी को भी देह की सुधि नहीं रही।

ठाकुर नरोत्तम जी का अंतिम समय

श्री नरोत्तम ठाकुर जी का प्रभाव उस समय इतना अधिक था कि बड़े-बड़े राजे-महाराजे और पंडित उनके मंत्र-शिष्य बने। वे बंगला भाषा के भी एक सुकवि थे और हजारों पदों की रचना की।

अपने अंतिम समय में, ठाकुर नरोत्तम जी ने गंगा स्नान की इच्छा व्यक्त की। उनके शिष्य उन्हें संकीर्तन करते हुए गंगा तट पर लाए। स्नान करते समय, उनके शरीर को धीरे-धीरे उनके शिष्यों ने मल-मलकर धोया, और अचानक उनका शरीर घुल-घुलकर दूध में परिवर्तित हो गया। गंगा की लहरों में वह दूध समा गया, और उनके शरीर का कोई भी अंश शेष नहीं रहा। उनका शरीर दुग्धमय होकर गंगा में विलीन हो गया।

शिक्षा

श्री नरोत्तम ठाकुर जी की यह अद्वितीय कथा भक्ति, सेवा, और त्याग की उच्चतम सीमा का परिचायक है। उनकी भक्ति की गहराई और गुरु सेवा का भाव हर भक्त के लिए एक प्रेरणा है।

दोहा:

सेवा से ही प्राप्त है, गुरु की कृपा साध।
नरोत्तम ने लख लिया, भक्ति मार्ग सुव्याध।।

अर्थात: केवल सेवा से ही गुरु की कृपा प्राप्त होती है। नरोत्तम ठाकुर जी ने यह भली प्रकार समझ लिया था और भक्ति मार्ग को ही सबसे सशक्त मार्ग माना।

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