
श्रीचैतन्यचरितामृत की अद्वितीय महिमा
।। वन्देऽहं करुणासिन्धुं कृष्णदासं प्रभुं मम।
यत्पादपद्मयोर्दीप्ताः कार्यसिद्धिर्भवेदपि।।
।। परम विजयते श्री श्रीचैतन्यचरितामृतम् ।।
मंगल ज्येष्ठ मास, कृष्ण पक्ष पंचमी तिथि को श्रीवृंदावनधाम स्थित श्रीबृहत् सूरमाकुञ्ज में, रसिककुल चूड़ामणि, अचिन्त्याभेदाभेदाचार्य श्रीपाद कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने भगवत्कृपा से १६१५ ईस्वी में श्रीमद् चैतन्यचरितामृत का पूर्ण प्राकट्य किया। (चै. च. अन्त्य २०.१५७)
वेदांत—जो वेदों का शिरोभाग है—यद्यपि परमतत्त्व की चर्चा करता है, परंतु परमपुरुष श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता, भगवत्प्रेम एवं निष्काम भक्ति की पूर्ण व्याख्या वहाँ अप्रकट है। इस अपूर्णता की पूर्ति श्रीमद्भागवत करती है, परंतु रसात्मक भक्ति, राधा-कृष्ण मिलन की लीला, एवं उज्ज्वल माधुर्य रसा के रहस्य का विस्तार श्रीमद् चैतन्यचरितामृत में ही पूर्णता पाता है।
श्रीमन्महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव—जो स्वयं राधा-भाव में कृष्ण हैं—ने जगत को जो पञ्चम पुरुषार्थ अर्थात श्रीकृष्णप्रेम प्रदान किया, उसे इस ग्रंथ ने अमृतमय शब्दों में प्रकट किया।
श्रीचैतन्यचरितामृत का मूल स्वरूप केवल ऐतिहासिक या आध्यात्मिक ग्रंथ नहीं, अपितु यह एक रसशास्त्रीय, दार्शनिक एवं तत्वमय गाथा है, जिसमें भक्तिरसामृतसिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि, वेदान्तसूत्र, उपनिषद, गीता और भागवत — इन सभी का सार सम्मिलित है।
इसमें कुल ११,००० श्लोक हैं, जो तीन लीलाओं में विभक्त हैं – आदिलीला, मध्यलीला और अन्त्यलीला। इसमें जहाँ एक ओर सरल हृदय साधकों के लिए नित्यप्रेरणा है, वहीं दूसरी ओर दार्शनिकों के लिए तत्वचर्चा की गहराई भी है।
जैसे श्रीमद्भागवत श्रीगोविन्ददेवजी का वाङ्मय स्वरूप है, वैसे ही श्रीचैतन्यचरितामृत श्रीगौरांग महाप्रभु का शब्दमय अवतार है।
भक्तिरसात्मक वाणी
“जेवा नाहि बुझे केह, शुनिते शुनिते सेह,
कि अद्धभुत चैतन्य चरित।
कृष्णे उपजिबे प्रीति, जानिबे रसेर रीति,
शुनिलेइ हय बड़ हित।।”
(चै. च. मध्य 2/87)
भावार्थ – यदि कोई अज्ञानी पुरुष भी श्रद्धा हो या न हो, यदि नियमित श्रीचैतन्यचरितामृत का श्रवण करे, तो श्रीगौरांग महाप्रभु की अहैतुकी कृपा से उसे श्रीकृष्णप्रेम की प्राप्ति हो जाती है। साथ ही वह राधा-कृष्ण की नित्य निकुंजलीला, सखी-मंजरी भाव, एवं रासविलास की परिणति—गौर तत्त्व में विलीन मधुर माधुर्य को भी जान जाता है।
उपसंहार
धन्य है वह दिन, जब यह दिव्य ग्रंथ प्रकट हुआ।
धन्य है वह साधक, जो इसकी एक पंक्ति भी श्रद्धापूर्वक हृदय में धारण कर ले।
और धन्य है वह लेखनी, जो इस रसामृत को आज भी जनमानस तक पहुँचाने का यत्न कर रही है।

श्रीचैतन्यचरितामृत महिमा
— श्रीगौरांग महाप्रभु की अहैतुकी कृपा का गान
“जेवा नाहि बुझे केह, शुनिते शुनिते सेह,
कि अद्धभुत चैतन्य चरित।
कृष्णे उपजिबे प्रीति, जानिबे रसेर रीति,
शुनिलेइ हय बड़ हित।।”
— श्रीचैतन्यचरितामृत, मध्यलीला 2.87
जिसे यह ग्रंथ समझ में न भी आए, वह भी यदि इसे नियमित श्रद्धा या बिना श्रद्धा के ही क्यों न सुने, तो भी श्रीचैतन्यचरितामृत की अमोघ शक्ति उस जीव के हृदय में श्रीकृष्णप्रेम की भावना जाग्रत कर देती है।
यह ग्रंथ न केवल श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम उत्पन्न करता है, अपितु श्रीराधा-गोविंद की नित्य निकुंज लीला की माधुरी में प्रवेश कराकर, भक्त को सखी-मंजरी भाव की गहराइयों तक पहुँचा देता है। “रासविलासेर परिणति, राइ कानु एकाकृति” — इस दिव्य रहस्य को प्रकट करता है कि रासविलास की चरम परिणति श्रीराधा-माधव के एकीकृत स्वरूप, श्रीगौरांग महाप्रभु में ही होती है।
जो इस ग्रंथ का श्रवण करता है, वह केवल ज्ञान प्राप्त नहीं करता, अपितु प्रेमसेवा की सम्पत्ति को भी पा लेता है। वह भक्त जो श्रीचैतन्यचरितामृत की अहैतुकी करुणा से सिंचित होता है, उसके जीवन में परम कृतार्थता की वर्षा होती है।
धन्य है वह जीव, धन्य है वह क्षण, और धन्य है यह श्रीग्रंथ —
जिसके श्रवणमात्र से जीव को अनायास श्रीगौरप्रेम की प्राप्ति हो जाती है।
राधे राधे।
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