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श्री भक्तमाल – श्री केशवाचार्य जी Shri Keshwav ji Mahraj

श्री भक्तमाल – श्री केशवाचार्य जी

१. श्री केशवाचार्य जी की युगल उपासना व हरिदेव जी का विग्रह प्रकट

श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ जी ने ब्रजभूमि में चार मुख्य देवालयों की स्थापना की, जिनमें से एक है श्री हरिदेव जी का मंदिर। कालांतर में मुग़ल आक्रमण के कारण यह दिव्य विग्रह लुप्त हो गया।

ब्रजभूमि में बिलछू कुंड के समीप, एक रसिक संत श्री केशवाचार्य जी ने भजन साधना के लिए निवास किया। उनका चित्त “वृषभानु सुता श्री नंद सुवन” के नामजप में सदैव लीन रहता। एक दिन, उनकी गहन साधना के समय, श्री हरिदेव जी उनके ध्यान में प्रकट हुए और कहा,

“मैं वही स्वरूप हूँ, जिसने इंद्र के मान का मर्दन किया और कनिष्ठिका के अग्रभाग से गोवर्धन पर्वत को धारण किया। मेरा यह स्वरूप बिलछू कुंड के समीप खेत के कुएं के पास विद्यमान है। उसे प्रकट करो।”

श्री केशवाचार्य जी ने प्रेमपूर्वक पूछा, “क्या आप अकेले हैं, ठाकुर जी?”
ठाकुर जी मुस्कुराए और बोले, “हाँ, मैं अकेला हूँ।”
श्री केशवाचार्य जी ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “प्रभु, अकेले आपकी सेवा हम नहीं कर सकते। हमें तो श्री राधारानी के साथ ही आप चाहिए।”

ठाकुर जी ने जानना चाहा, “अकेले क्यूँ नहीं?”
श्री केशवाचार्य जी ने प्रेमभरी बात कही,
“राधारानी के बिना आप स्थिर नहीं रह सकते। यदि आप हमें छोड़कर चले गए तो हम सारा जीवन व्याकुल रहेंगे। यदि आपके पीताम्बर से राधारानी के नीलाम्बर की गाँठ बँधी रहेगी, तो आप प्रेम की इस गाँठ को तोड़कर कहीं जा नहीं पाएंगे।”

इस पर ठाकुर जी ने बताया, “जब मैंने गोवर्धन पर्वत उठाया था, तो मैया और बाबा बहुत व्याकुल हो गए थे। उन्होंने महर्षि शांडिल्य से उपाय माँगा। महर्षि ने बताया कि जब तक राधारानी अष्टसखियों सहित मेरे सम्मुख विराजमान रहेंगी, तब तक मुझे कोई कमी नहीं होगी। इसीलिए, यह हरिदेव स्वरूप मेरा ‘राधाभाव-भावित स्वरूप’ है।”

यह सुनकर श्री केशवाचार्य जी आनंदमग्न हो गए। ठाकुर जी के आदेशानुसार खुदाई कराई, और दिव्य विग्रह प्रकट हुआ। जब सबने इस विग्रह को अपना बताने का प्रयास किया, तो आकाशवाणी हुई, “जो इस विग्रह को उठा सके, वही इसे स्थापित करेगा।”
श्री केशवाचार्य जी ने जैसे ही विग्रह को स्पर्श किया, ठाकुर जी उनके हृदय से आ लगे।

२. सम्पूर्ण श्रीअंग पर नाम का दर्शन

एक बार संत मंडली श्री केशवाचार्य जी के स्थान पर आई। उन्होंने ठाकुर जी को भोग लगाया और संतों से प्रसाद ग्रहण करने का आग्रह किया। संतों ने पूछा, “क्या आपके पाँचों संस्कार पूर्ण हुए हैं?”
श्री केशवाचार्य जी ने कहा, “मेरे चार संस्कार हुए हैं, पर ताप संस्कार (गर्म छाप) नहीं हुआ।”
संतों ने कहा, “तब हम यहाँ प्रसाद नहीं ले सकते।”

यह सुनकर श्री केशवाचार्य जी ने निवेदन किया, “नाम की निष्ठा रखने वालों के लिए अलग से छाप की आवश्यकता नहीं। उनके तो रोम-रोम में नाम अंकित होता है।”
संतों ने कहा, “यह तो बातें हैं। प्रत्यक्ष दिखाओ तो मानेंगे।”

श्री केशवाचार्य जी ने अपने वस्त्र उतारे, और सभी ने देखा कि उनके सम्पूर्ण शरीर पर ‘वृषभानु सुता श्री नंद सुवन’ अंकित था। संतों ने दंडवत प्रणाम कर कहा,
“वास्तविक छाप तो आपकी ही है, महाराज।”

३. श्रीमंदिर का निर्माण

एक दिन ठाकुर जी ने श्री केशवाचार्य जी से खीरभोग की इच्छा प्रकट की। केशवाचार्य जी ने कहा, “मेरे पास सामग्री का अभाव है और मेरा नियम है कि मैं याचना नहीं करता।”

उसी रात्रि, ठाकुर जी ने आमेर नरेश भगवानदास को स्वप्न में आदेश दिया। राजा ने भव्य मंदिर का निर्माण कराया और सेवा के लिए धन व खेती प्रदान की। इस प्रकार, मानसी गंगा के दक्षिण तट पर श्री हरिदेव जी का मंदिर स्थापित हुआ।

४. श्री ठाकुर जी द्वारा विवाह की आज्ञा

एक दिन ठाकुर जी ने कहा, “मैं एक आज्ञा देता हूँ, जिसे बिना प्रश्न स्वीकार करो।”
जगन्नाथ पुरी में एक ब्राह्मण ने संतान की कामना से मेरी सेवा की और अपनी पहली संतान को अर्पण करने का व्रत लिया। ब्राह्मण के यहाँ कन्या उत्पन्न हुई, और मैंने उसे कहा, ‘गोवर्धन में श्री केशवाचार्य जी के रूप में मैं ही विद्यमान हूँ। अपनी कन्या उन्हें अर्पित करो।’

श्री केशवाचार्य जी का विवाह हुआ, और उनके दो पुत्र हुए – श्री परशुराम और श्री बालमुकुंद। ये बालक श्री हरिदेव जी के साथ खेलते और उनकी सेवा में उपस्थित रहते।


सीख:

  1. युगल उपासना: राधा-कृष्ण की आराधना से जीवन में स्थिरता और आनंद प्राप्त होता है।
    दोहा:
    राधा-रमण जो प्रीत करो, नित हिय सुमिरन होय।
    जग के सुख सब मिथ्या लगे, ब्रज रास बिन कोय।
  2. भक्त की पहचान: सच्चा भक्त वही है, जिसके रोम-रोम में प्रभु का नाम बसा हो।
    दोहा:
    भगवन्नाम बसै जो तन में, उसको ताप कहाय।
    ना धागा ना छाप हो, हरि में लीन समाय।
  3. निःस्वार्थ सेवा: भगवान का प्रेम सच्चे भक्तों को उनकी इच्छाएं पूर्ण करने की शक्ति देता है।
    दोहा:
    सेवा कर मन स्वच्छ कर, प्रभु हर इच्छा पूर्ण।
    भक्त सदा वश होय हरि, यह नीति अतिपूर्ण।
  4. नियम और त्याग: भक्ति का सार नियम और त्याग में निहित है।
    दोहा:
    साधन से सिद्धि मिले, नियम रहें जो साथ।
    त्याग बिना सब व्यर्थ है, भक्ति सदा के हाथ।

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