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अभिमान या स्वाभिमान – वैष्णव दृष्टिकोण से एक चिंतन

अभिमान और स्वाभिमान का वैष्णव विवेचन | दैन्यता का भाव | श्रीकृष्ण के सेवक का आत्मनिरीक्षण

अभिमान या स्वाभिमान

अधिकतर अभिमान और स्वाभिमान की बात होती है। लोक दृष्टि से स्वाभिमान का अर्थ होता है—अपने जाति का अभिमान, अपने मानव होने का अभिमान, अपने स्त्री या अर्धांगिनी होने का अभिमान, या फिर अपने पद की गरिमा को लेकर गर्व करना। इसी को प्रायः स्वाभिमान कहा जाता है।

जैसे—कार्यालय में एक चपरासी यदि किसी अधिकारी से उसकी गरिमा के अनुरूप बात न करे, तो हम कहते हैं कि “स्वाभिमान को ठेस पहुँची है।”
परंतु यदि यही स्वाभिमान थोड़ा और बढ़ जाए तो वही अभिमान बन जाता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि स्वाभिमान और अभिमान दोनों मौसेरे भाई हैं—एक-दूसरे के अत्यंत समीप।

किन्तु वैष्णव वृत्ति में दोनों ही त्याज्य हैं।

अभिमान? किस बात का अभिमान?
एक वैष्णव तो केवल श्रीकृष्ण का दास है।
दास भी नहीं—दासों के दास का दास।

यदि हमने अपने आप को केवल इतना मान लिया कि हम श्रीकृष्ण के एक तुच्छ सेवक हैं, तो अभिमान का तो कोई स्थान ही नहीं बचता। अभिमान करने का अवसर ही नहीं मिलता।

अब बात आती है स्वाभिमान की—कि हम “कृष्ण के दास हैं”।
यह भाव रहना चाहिए, परंतु इस पर भी विचार आवश्यक है।

बड़े-बड़े संतों और महान वैष्णवों ने स्वयं को यह कहने योग्य भी नहीं माना कि वे पूरी तरह से कृष्ण के दास बन पाए हैं

तो हम जैसे साधारण जीव, जो न तो संसार-धर्म निभा पा रहे हैं, और न ही ठाकुरजी की भक्ति और भजन में स्थिर हो पा रहे हैं, क्या सच में इस बात का स्वाभिमान कर सकते हैं कि “हम कृष्ण के दास हैं”?

तत्त्वतः हम दास हैं—यह सत्य है।
परंतु दास का कर्तव्य, उसकी निष्ठा, उसकी सेवा और त्याग—हम कहाँ निभा पा रहे हैं?

जब हम यह सब नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर स्वाभिमान किस बात का?

अतः एक सच्चे वैष्णव को सदा ही दीन-हीन होकर रहना है।
दैन्य ही वैष्णव का भूषण है।
और यह दैन्यता केवल कहने, लिखने या दिखाने के लिए नहीं—
यह हृदय से होनी चाहिए।

हमें मन से स्वीकार करना चाहिए—

“हम श्रीकृष्ण के एक दीन-हीन जन हैं।
न हमसे संसार निर्वाह हुआ,
न भजन हो पाया।
जाने कितने जन्म लगेंगे कि हम ठाकुरजी की सेवा के योग्य बन सकें।
हम तो एक कीट के समान तुच्छ जीव हैं।”

यदि यह दैन्यभाव हृदय में जाग्रत हो जाए,
तो फिर अभिमान और स्वाभिमान—ये दोनों ही दुम दबाकर भाग जाएँगे।

और इनका भाग जाना ही—
एक वैष्णव के जीवन के बड़े हित की बात है।

जय श्री राधे ॥ जय निताई गौर॥

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