राधे राधे!
तव कथामृतं तप्तजीवनं… – श्रीकृष्णकथा की अमृत महिमा
श्लोक:
“तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥”
— श्रीमद्भागवत 10.31.9 (गोपिकागीत)
शब्दार्थ एवं भावार्थ:
तव – हे प्रभो!
कथामृतम् – तुम्हारी लीला-कथाएँ जो अमृत के समान हैं,
तप्त-जीवनम् – जो संसार के ताप से पीड़ित प्राणियों के जीवन को शीतलता प्रदान करती हैं,
कविभिः ईडितम् – जिनका गुणगान मुनि, महात्मा और भक्त कवियों ने किया है,
कल्मष-आपहम् – जो समस्त पापों और मानसिक विकारों का नाश करती हैं,
श्रवण-मङ्गलम् – जिनका श्रवण ही परम-मंगलकारी है,
श्रीमत्-आततं – जो श्री से सम्पन्न, ऐश्वर्ययुक्त और निरंतर गायी जाने योग्य हैं,
भुवि गृणन्ति – जो मनुष्य इस धरती पर उनका गायन करते हैं,
ते भूरिदाः जनाः – वे ही वास्तव में भूरिदान (अत्यंत दानशील) करने वाले महान जन हैं।

विस्तृत भावार्थ (पुस्तक शैली में):
हे हमारे हृदय के नाथ! आपकी कथा ही अमृत स्वरूप है। यह अमृत उस साधक को जीवनदान देती है, जो संसार के त्रैतिक तापों – आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक पीड़ा से तप्त है। जिस प्रकार कोई प्यासा यात्री रेगिस्तान में अमृत बूंद पाकर पुनर्जीवित हो उठता है, उसी प्रकार आपकी लीला-कथाएँ इस भव-सागर में भटकते जीव को चेतना और आनंद प्रदान करती हैं।
इन कथाओं की मधुरिमा इतनी उच्चतम है कि महान भक्त कवियों, जैसे व्यासदेव, शुकदेव, जयदेव, सूरदास, तुलसी, चैतन्य, रूप-सनातन, आदि ने उन्हें काव्य में, पदों में, प्रेम में गाया। वह कथा पापराशि को नष्ट करती है। मन, वचन और कर्म से हुए अविद्या मूलक दोषों को हरने वाली है।
आपकी कथा का सुनना ही स्वयं में एक महायज्ञ है, जिसका प्रतिफल स्वयं भगवत्प्राप्ति है। यह श्रवणमंगल है – अर्थात् इसका श्रवण हर दृष्टि से मंगल ही मंगल है। यह कथा केवल कथा नहीं, बल्कि श्रीमद है – श्री से परिपूर्ण, लक्ष्मी की दिव्यता से युक्त, और हर क्षण सज्जनों के हृदय में व्यापने वाली है।
और इस कथा को जो सज्जन – चाहे वह वक्ता हों या गायक, लेखक हों या केवल प्रेम से नाम जपने वाले – जो इसे इस भूतल पर गाते हैं, सुनाते हैं, फैलाते हैं, ऐसे व्यक्ति वास्तव में ‘भूरिदा’ हैं – अर्थात् सबसे बड़े दानी! क्योंकि वे लोगों को केवल अन्न, वस्त्र या धन नहीं देते, बल्कि परमानंद का अमृत, कृष्णप्रीति, जीवनमुक्ति का साधन प्रदान करते हैं।

भावप्रवण चिंतन:
श्रीकृष्णकथा केवल इतिहास नहीं, केवल मनोरंजन नहीं – यह जीवन को पारावार के पार ले जाने वाली नाव है। कथा का श्रवण, कीर्तन, स्मरण – यही भक्ति का सहज साधन है।
“सत्यं शमं सौचम… श्रोतव्याः कीर्तितव्यश्च…” (भागवत) – यह श्रवणशीलता स्वयं को शुद्ध करने की प्रक्रिया है।
इसलिए गोपियाँ स्वयं इस श्लोक में कहती हैं कि –
“हे कान्हा! हम कुछ और नहीं मांगतीं, बस यही व्रजवासी कीर्तन, यह रासलीला की कथा, यही बांसुरी की तान और यही तव कथामृत हमारी आराधना है।”
नवनीत निष्कर्ष:
जो श्रीकृष्ण की कथा सुनता है, वह उत्तम साधक है।
जो कथा सुनाता है, वह कल्याणकर्ता है।
जो इसे हृदय से गाता है, वह भूरिदा – संसार में परम दानी है।
और जो कथा को हृदय में संजोकर जीता है, वह मुक्त पुरुष है।

राधे राधे!
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