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चतुःश्लोकी भागवत – भावपूर्ण व्याख्या

चतुःश्लोकी भागवत – भावपूर्ण व्याख्या

श्रीभगवान ने ब्रह्माजी को संबोधित करते हुए चार श्लोकों में सम्पूर्ण सृष्टि और उसके रहस्यों का वर्णन किया। ये श्लोक केवल दर्शन या ज्ञान नहीं हैं, बल्कि हमें आत्मा और परमात्मा के सत्य से जोड़ने का माध्यम हैं। इन श्लोकों में छुपे गूढ़ रहस्य और भावनाएँ हर व्यक्ति के जीवन में एक नई दिशा दिखाते हैं। आइए इसे भावपूर्ण दृष्टिकोण से समझते हैं:

प्रथम श्लोक:

“अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥”

भावार्थ:
सृष्टि के आरम्भ से पहले केवल भगवान ही थे, न सत्य था न असत्य, सबकुछ उन्हीं में विलीन था। सृष्टि के समाप्त होने पर भी वही परमात्मा शेष रहते हैं। इसका तात्पर्य है कि समस्त चराचर जगत उन्हीं से उत्पन्न होता है और उन्हीं में समाहित हो जाता है। जो कुछ है, वह केवल परमात्मा हैं।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमारे जीवन की हर स्थिति, चाहे वह सुख हो या दुःख, अस्थायी है। जो सदा रहता है, वह परमात्मा हैं।

दोहे से सीख:
“जगत चले नित्य नियम, दुख सुख संग चले।
जन्म मृत्यु सब खेल है, शाश्वत आत्मा रहे॥”

द्वितीय श्लोक:

“ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः॥”

भावार्थ:
जो कुछ आत्मा के अलावा प्रतीत होता है, वह सब माया है। माया के पर्दे में जो कुछ हमें वास्तविक दिखता है, वह केवल भ्रम है। सत्य तो केवल आत्मा है, जो अनादि और अनंत है।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि संसार के भौतिक आकर्षण, धन, वैभव और शक्ति—ये सब क्षणभंगुर हैं। केवल आत्मा का सत्य है।

दोहे से सीख:
“संसार का सब मोह है, माया का यह खेल।
सच्चा सुख तो आत्मा में, सत्य वही एक मेल॥”

तृतीय श्लोक:

“यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥”

भावार्थ:
जैसे पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) संसार की छोटी-बड़ी वस्तुओं में स्थित होते हुए भी उनसे अलग रहते हैं, वैसे ही परमात्मा सभी जीवों में निवास करते हुए भी उनसे अलग रहते हैं।

यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि परमात्मा सबके भीतर हैं, लेकिन वे किसी से बंधे नहीं। वे स्वतंत्र हैं, सर्वव्यापी हैं।

दोहे से सीख:
“अंतर बाह्य सभी जगह, बसे परमेश्वर आप।
पर उनमें बंधे नहीं, रहते नित स्वतंत्र॥”

चतुर्थ श्लोक:

“एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥”

भावार्थ:
जो लोग आत्म-तत्व को जानना चाहते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि जो सदा सभी देश, काल और परिस्थिति में एक समान रहता है, वही सत्य है, वही आत्मा है।

यह श्लोक हमें आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा देता है। जीवन के हर मोड़ पर हमें आत्मा के शाश्वत सत्य को समझना चाहिए।

दोहे से सीख:
“आत्मा शाश्वत, सत्य वही, बदल न पाये काल।
सत्य जानो, जीवन पथ, पाओ परम निष्काम॥”


इन चार श्लोकों से हमें यह सीख मिलती है कि संसार की सारी घटनाएँ, वस्तुएं और अनुभव अस्थायी हैं। केवल आत्मा और परमात्मा शाश्वत हैं। जीवन में सुख और दुःख, उत्थान और पतन, सब माया का खेल है। जो इस सत्य को जानकर जीवन जीता है, वही वास्तव में जीवन का मर्म समझता है।

जीवन का सार:
“संसार की चंचल माया में, मत फंसो तुम आज।
परमात्मा ही सत्य है, जानो वही महराज॥”

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