अवतार की प्रस्तावना
भगवान के अवतार का विषय अत्यंत महत्वपूर्ण और गूढ़ है। जब हम श्रीकृष्ण अवतार पर विचार करने जाते हैं, तब यह आवश्यक है कि हम पहले अवतार के सिद्धांत को समझ लें। दशम स्कंध में श्रीकृष्ण की कथा निरंतर आगे बढ़ती है, जिससे यह समझने में सरलता होती है।
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार अन्य अवतारों की तुलना में अद्वितीय है। पहले के अवतारों में, जैसे परशुराम या राम, विभिन्न भावनाओं और स्थितियों का सामना करना पड़ा। कभी वे उग्र अवतार थे, तो कभी शान्त। लेकिन श्रीकृष्ण का अवतार एकल कथा के रूप में प्रस्तुत होता है, जिससे उनके चरित्र और शिक्षाओं को समझना आसान होता है।
भगवद गीता में भगवान का वचन
भगवान ने भगवद गीता में कहा है:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
(भगवद गीता 4.7)
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
(भगवद गीता 4.8)
इन श्लोकों में भगवान स्पष्ट करते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उत्कर्ष होता है, तब वे स्वयं अवतार लेते हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि भगवान ने यह नहीं कहा कि जब धर्म का पूर्ण नाश हो जाता है, तब वे आते हैं। बल्कि, वे तब आते हैं जब धर्म की अवनति होती है और अधर्म बढ़ता है।
धर्म का महत्व
धर्म का अर्थ केवल धार्मिक क्रियाकलाप नहीं है; यह मनुष्य की लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति का साधन है। यदि समाज में धर्म की स्थिति अच्छी हो, तो भगवान के आने की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन जब समाज में अधर्म बढ़ने लगता है, और धर्म का ह्रास होने लगता है, तब भगवान का अवतार आवश्यक हो जाता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि धर्म और अधर्म के बीच का संतुलन बनाए रखना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। जब हम धर्म का पालन करते हैं, तब हम न केवल अपनी भलाई करते हैं, बल्कि समाज की उन्नति में भी योगदान देते हैं।
साधु का अर्थ और महत्व
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।।
यहाँ “साधु” शब्द का अर्थ अत्यंत गहन है। साधु केवल वे नहीं होते जो साधारण कपड़े पहनकर भिक्षाटन करते हैं। साधु का वास्तविक अर्थ है—वे व्यक्ति जो अपने धर्म और नैतिकता के मार्ग पर दृढ़ता से चलते हैं, चाहे परिस्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो।
साधु की परिभाषा
सच्चे साधु वे होते हैं जो अपने धर्म से विचलित नहीं होते, यहाँ तक कि प्राणों का संकट आ जाने पर भी। ये लोग अपने सिद्धांतों और नैतिकताओं के प्रति प्रतिबद्ध रहते हैं। साधु का आचरण इस प्रकार होता है:
- धर्म का पालन: साधु वे हैं जो सत्य, अहिंसा, और प्रेम का अनुसरण करते हैं।
- संकट में धैर्य: संकट के समय अपने मार्ग से नहीं हटते।
- समाज के प्रति जिम्मेदारी: साधु समाज की भलाई के लिए काम करते हैं और दूसरों को भी प्रेरित करते हैं।
साधुओं की रक्षा
भगवान का अवतार साधुओं की रक्षा के लिए होता है। जब साधु सुरक्षित होते हैं, तब धर्म की रक्षा अपने आप होती है। साधु की सुरक्षा का तात्पर्य यह है कि जब वे अपनी राह पर चलते हैं, तो समाज में धर्म और सदाचार की प्रतिष्ठा बनी रहती है।
अधर्मियों का नाश
अधर्मियों का नाश कई तरीकों से होता है। या तो उनका हृदय परिवर्तन होता है और वे साधु बन जाते हैं, या फिर उनकी दुष्टता के कारण उनका अंत निश्चित होता है। भगवान जब आते हैं, तो वे साधुओं की रक्षा करते हैं और अधर्मियों का नाश करते हैं।
साधु-संतों का अवतार
साधु-संतों को भगवान के नित्य अवतारों के रूप में देखा जा सकता है। ये लोग विभिन्न रूपों में आते हैं और समाज को सही मार्ग दिखाते हैं। उनकी विशेषताएँ होती हैं:
- ज्ञान का प्रसार: साधु-संत ज्ञान और सत्य को फैलाने का कार्य करते हैं।
- दया और करुणा: वे सभी जीवों के प्रति दयालु होते हैं।
- धर्म की स्थापना: साधु धर्म की स्थापना और उसका पालन करते हैं।
निष्कर्ष
भगवान का अवतार हमें यह सिखाता है कि धर्म की रक्षा करना और अधर्म का विरोध करना हमारी जिम्मेदारी है। जब हम यह समझेंगे कि धर्म का पालन हमारे लिए और समाज के लिए कितना आवश्यक है, तब हम भगवान की शिक्षाओं को सही रूप में आत्मसात कर सकेंगे। श्रीकृष्ण के अवतार को समझना, वास्तव में, हमारे अपने जीवन में धर्म और अधर्म के बीच के संघर्ष को समझने की एक कुंजी है।
इस प्रकार, श्रीकृष्ण का अवतार एक प्रेरणा है, जो हमें धर्म के प्रति सजग रहने और अधर्म के खिलाफ खड़ा होने की प्रेरणा देता है।
साधुता का मार्ग अपनाना ही सच्चे मानवता का परिचायक है, और इस दिशा में उठाए गए कदम हमारे जीवन में सकारात्मक बदलाव लाते हैं। Think like Monk act like warrior.
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