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श्री चैतन्य महाप्रभु: श्रीमद्भागवत में गुप्त अवतार | कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं व्याख्या

कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदम् |
यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ||

जो कृष्णस्वरूप हैं, किंतु उनका वर्ण कृष्ण (श्याम) नहीं है, बल्कि गौर (स्वर्णिम) है। वे अपने भक्तों के साथ अवतरित होकर संकीर्तन-यज्ञ का प्रचार करते हैं। बुद्धिमान लोग उनकी उपासना करते हैं।

“इस कलियुग में जो लोग पर्याप्त बुद्धिमान हैं वे भगवान् की उनके पार्षदों सहित संकीर्तन-यज्ञ द्वारा पूजा करेंगे |” वेदों में वर्णित अन्य यज्ञों को इस कलियुग में कर पाना सहज नहीं, किन्तु संकीर्तन-यज्ञ सुगम है और सभी दृष्टि से अलौकिक है, जैसा कि संस्तुति की गई है |

यहाँ पर श्रीमद्भागवत (११.५.३२) के श्लोक —


“कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं सांगोपांगास्त्रपार्षदम् |
यज्ञैः संकीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः ||” —
की गौड़ीय परंपरा के अनुसार व्याख्या प्रस्तुत है — जिसमें अन्वय, भावार्थ और लक्ष्यार्थ तीनों सम्मिलित हैं।

🌼 श्लोक का अन्वय (वाक्यक्रम):
सुमेधसः हि — निश्चय ही बुद्धिमान पुरुष
कृष्णवर्णं त्विषा अकृष्णं — जो कृष्ण वर्ण का है, परंतु रूप से कृष्ण (श्याम) नहीं है
साङ्ग-उपाङ्ग-अस्त्र-पार्षदम् — जो अपने अंगों, उपांगों, अस्त्रों और पार्षदों के साथ प्रकट होता है
संकीर्तनप्रायैः यज्ञैः यजन्ति — उसका पूजन संकीर्तनमय यज्ञों के द्वारा करते हैं।

💛 भावार्थ (गौड़ीय भक्ति परंपरा के अनुसार):
यह श्लोक श्री चैतन्य महाप्रभु के गुप्त अवतार का स्पष्ट संकेत है, जो श्रीमद्भागवत में छिपे हुए रूप से वर्णित है।

“कृष्णवर्णं” — वह श्रीकृष्ण के वर्ण में हैं, अर्थात् वे स्वयं कृष्ण हैं, अथवा जो निरंतर ‘कृष्ण’ नाम का संकीर्तन करते हैं।

“त्विषा अकृष्णं” — उनके शरीर की कान्ति कृष्ण (श्याम) जैसी नहीं है, बल्कि गौरवर्ण (स्वर्ण समान) है, जैसे श्री चैतन्य महाप्रभु का रंग।

“साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्” — उनके साथ उनके अंग (जैसे नित्यानंद), उपांग (जैसे गदाधर), अस्त्र (नाम-संकीर्तन) और पार्षद (जैसे श्रीवास आदि) रहते हैं।

“यज्ञैः संकीर्तनप्रायैः” — इस कलियुग में यज्ञों में श्रेष्ठ संकीर्तन यज्ञ है। यही युगधर्म है।

“यजन्ति हि सुमेधसः” — केवल वे ही लोग जो सुमेधसः हैं, अर्थात् जिनकी बुद्धि शुभ और दिव्य है, वे इस अवतार की पहचान कर संकीर्तन से उसकी आराधना करते हैं।

🎯 लक्ष्यार्थ (अंतिम उद्देश्य की दृष्टि से व्याख्या):
यह श्लोक कलियुग के युगधर्म और युगावतार दोनों की घोषणा करता है।

श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृष्ण हैं, जो राधारानी की भाव-भक्ति और गौरवर्ण को लेकर अवतरित हुए हैं, ताकि अपने ही नाम के संकीर्तन के माध्यम से जीवों को प्रेम-भक्ति प्रदान करें।

उनका मुख्य अस्त्र है “हरिनाम संकीर्तन” — “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।”

वे शस्त्र नहीं, नाम, लीला और प्रेम के द्वारा उद्धार करते हैं।

सुमेधसः — वे जो विशेष आध्यात्मिक बुद्धि से संपन्न हैं, वे ही इस रहस्य को समझते हैं और उस मार्ग को अपनाते हैं जो महाप्रभु ने दिखाया — संकीर्तनमार्ग।

📜 गौड़ीय संतों की दृष्टि से विशेष टिप्पणियाँ:
🔹 श्रील प्रभुपाद ने कहा — यह श्लोक श्री चैतन्य महाप्रभु की भविष्यवाणी है, जो हर भक्त के हृदय में ध्रुव सत्य की तरह अंकित होनी चाहिए।
🔹 श्रील विष्णु नाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इसे कलियुग में भगवान के स्वर्णमयी अवतार की सीधी पहचान माना है।
🔹 श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने चैतन्य चरितामृत में कहा है —
“antah kṛṣṇa bahir gaura, saṅge nāma-saṅkīrtana” — अंदर से श्रीकृष्ण और बाहर से गौरवर्ण के साथ नाम-संकीर्तन करने वाले भगवान चैतन्य ही हैं।

✨ भावप्रधान सारांश:
“कलियुग में न हवन, न जल, न मणि, न तपस्या,
केवल नाम संकीर्तन से मिलता है कृष्णप्रेम का रास्ता।”

“गौरवर्ण में छिपा कृष्ण, प्रेमरस का भंडार,
सुमेधा जन पहचाने उसे, करें संकीर्तन बारम्बार।”

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