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64 प्रकार के नाम अपराध (नामापराध)

64 प्रकार के नाम अपराध (नामापराध) का वर्णन श्री चैतन्य महाप्रभु और अन्य वैष्णव आचार्यों ने किया है। ये अपराध श्री हरिनाम संकीर्तन करते समय बचने योग्य होते हैं, क्योंकि ये भक्ति के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं।

मुख्य 10 नामापराध (दश नामापराध)

शास्त्रों में 64 नाम अपराधों का उल्लेख मिलता है, लेकिन मुख्य रूप से 10 प्रमुख अपराध बताए गए हैं:

  1. वैष्णवों की निंदा करना – हरि नाम जप करने वाले भक्तों का अपमान करना।
  2. श्रीहरि को अन्य देवताओं के समान मानना – यह समझना कि श्रीहरि भी अन्य देवताओं के समान हैं।
  3. गुरु का अपमान करना – जो भगवद्भक्ति का मार्ग दिखाते हैं, उनके प्रति अनादर रखना।
  4. शास्त्रों की निंदा करना – वेदों और अन्य भक्ति ग्रंथों का अपमान करना।
  5. हरिनाम की महिमा को समझकर भी उसमें श्रद्धा न रखना – नाम को केवल सांसारिक या साधारण ध्वनि मानना।
  6. पाप करके हरिनाम से उसका प्रायश्चित करने की इच्छा रखना – जानबूझकर पाप करके सोचना कि नाम जप से पाप धुल जाएगा।
  7. हरिनाम के प्रभाव को कल्पित मानना – नाम संकीर्तन को केवल एक कथा या कल्पना मानना।
  8. हरिनाम का प्रचार न करना और दूसरों को इसे ग्रहण करने से रोकना – भगवन्नाम का प्रचार न करना या दूसरों को जप से रोकना।
  9. हरिनाम जप करते हुए अश्रद्धा बनाए रखना – जप करते हुए पूर्ण विश्वास न रखना।
  10. हरिनाम के प्रभाव को समझे बिना माया में लिप्त रहना – यह सोचकर कि हरिनाम से कुछ नहीं होगा, भौतिक सुखों में लिप्त रहना।

अन्य 54 नाम अपराध (संक्षेप में)

इन 10 अपराधों के अतिरिक्त, अन्य 54 अपराधों का भी वर्णन किया गया है, जो हरिनाम की शुद्धता को बाधित करते हैं:

  1. नाम जप करते हुए मन में सांसारिक चिंताओं को रखना।
  2. नाम जप को एक साधारण कर्म मानना।
  3. बिना नियम और अनुशासन के जप करना।
  4. भगवन्नाम का उपयोग व्यापारिक लाभ के लिए करना।
  5. हरिनाम जप को दिखावे के लिए करना।
  6. नाम जप करते हुए ईर्ष्या और द्वेष रखना।
  7. हरिनाम का अनादर करना।
  8. श्रीकृष्ण के नाम को केवल ध्वनि मानकर उसका महत्व न समझना।
  9. भगवान के नाम और स्वरूप में भेद मानना।
  10. बिना भक्ति के नाम जप करना।
  11. बिना गुरु कृपा के जप करना।
  12. भौतिक इच्छाओं के साथ नाम संकीर्तन करना।
  13. भगवान के नाम और गुणों में अविश्वास रखना।
  14. भगवान के नाम की महिमा को बढ़ा-चढ़ाकर कहना।
  15. धर्म की आड़ में अधर्म करना और सोचना कि नाम जप से सब ठीक हो जाएगा।
  16. नाम संकीर्तन करते हुए दिखावा करना।
  17. नाम जप के प्रभाव को लेकर संदेह रखना।
  18. बिना पवित्रता के नाम जप करना।
  19. अनावश्यक रूप से तर्क-वितर्क करना और नाम पर प्रश्न उठाना।
  20. अपने अहंकार के कारण नाम संकीर्तन से विमुख रहना।
  21. भगवान के नाम के प्रभाव को स्वीकार न करना।
  22. अपने भौतिक लाभ के लिए नाम का उपयोग करना।
  23. सांसारिक मनोरंजन में लिप्त रहते हुए नाम जप करना।
  24. नाम जप करते समय विकारों (काम, क्रोध, लोभ) में लिप्त रहना।
  25. किसी को नाम संकीर्तन से रोकना।
  26. असत्संग में रहते हुए नाम जप करना।
  27. भगवान के प्रति भक्ति में संदेह रखना।
  28. हरिनाम को हल्के में लेना।
  29. अपने कर्मों से दूसरों को हरिनाम से दूर करना।
  30. भक्तों की संगति न करना।
  31. भगवान की सेवा में रुचि न रखना और केवल नाम जप को पर्याप्त समझना।
  32. भगवान के लीलाओं को सामान्य कथा मानना।
  33. नाम के प्रभाव की परीक्षा लेना।
  34. हरिनाम को किसी भौतिक वस्तु से तुलना करना।
  35. किसी भक्त को देखकर उसके जप का मजाक उड़ाना।
  36. जप करते समय अनावश्यक बातों में लिप्त रहना।
  37. अपवित्र स्थान पर नाम संकीर्तन करना।
  38. भगवान के नाम की अवहेलना करना।
  39. हरिनाम जप को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए उपयोग करना।
  40. किसी के नाम जप को बाधित करना।
  41. गुरु की आज्ञा के बिना नाम जप के नियम बनाना।
  42. श्रीहरि के नामों को अपूर्ण या तुच्छ मानना।
  43. भगवान के नाम से अधिक अन्य सांसारिक नामों में रुचि रखना।
  44. हरिनाम की महिमा पर अविश्वास रखना।

श्रीहरिनाम संकीर्तन ही इस कलियुग में मोक्ष प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय है। यदि कोई भक्त निष्कपट होकर नाम का स्मरण करता है, तो वह सभी अपराधों से मुक्त होकर भगवत्कृपा को प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अनजाने में अपराध कर बैठता है, तो उसे विनम्रता से श्रीहरि और वैष्णवों से क्षमा मांगनी चाहिए और निष्ठापूर्वक हरिनाम जप करते रहना चाहिए।

हरेर्नाम, हरेर्नाम, हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।।”

(बृहन नारदीय पुराण)

अर्थात – कलियुग में केवल श्रीहरिनाम ही कल्याण का मार्ग है, इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।

व्याख्या:

  • हरेर्नाम (हरे नाम): भगवान हरि का नाम
  • हरेर्नामैव केवलम्: केवल हरि का नाम
  • कलौ: कलियुग में
  • नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा: हरि के नाम के अलावा कोई और मार्ग नहीं है 

यह श्लोक श्री चैतन्य महाप्रभु के चैतन्य चरितामृत से लिया गया है, और यह कलियुग में हरिनाम के महत्व को बताता है |

अगले 10 नाम अपराध (55-64)

  1. भौतिक कार्यों को हरिनाम से अधिक महत्वपूर्ण मानना – सांसारिक कार्यों को हरिनाम से प्राथमिकता देना और यह सोचना कि नाम संकीर्तन से कोई विशेष लाभ नहीं होगा।
  2. हरिनाम का अपमान करने वालों की संगति करना – उन लोगों के साथ रहना जो हरिनाम, भक्तों और भक्ति के मार्ग का अनादर करते हैं।
  3. अपने नाम जप को दूसरों के नाम जप से श्रेष्ठ मानना – अपने नाम संकीर्तन को सर्वोत्तम समझकर दूसरों के जप का अपमान करना।
  4. भगवान के नाम से भिन्न वस्तु में सर्वोच्च विश्वास रखना – यह मानना कि हरिनाम से इतर कोई अन्य साधन मोक्ष प्रदान कर सकता है।
  5. हरिनाम को केवल मानसिक शांति या मनोरंजन का साधन समझना – हरिनाम की महिमा को न समझकर इसे केवल ध्यान या मानसिक शांति प्राप्त करने का माध्यम मानना।
  6. सिद्धियों के लिए हरिनाम का जप करना – भक्ति के बजाय अलौकिक शक्तियों, चमत्कारों या सांसारिक उपलब्धियों की प्राप्ति के लिए हरिनाम का उपयोग करना।
  7. हरिनाम जप में अनियमितता रखना – कभी नाम जप करना और कभी छोड़ देना, नियमित रूप से जप न करना।
  8. हरिनाम के प्रभाव को अनुभव करके भी उसमें श्रद्धा न रखना – नाम जप से हुए लाभ को देखने के बाद भी इसे ईश्वर कृपा न मानना और श्रद्धाहीन रहना।
  9. हरिनाम को छोड़कर अन्य उपायों पर निर्भर रहना – हरिनाम को छोड़कर अन्य पद्धतियों या यंत्र-तंत्र में अधिक विश्वास रखना।
  10. हरिनाम को अपनाने के बाद फिर से सांसारिक आसक्ति में लौट जाना – भक्ति का मार्ग अपनाने के बाद भी भौतिक विषयों में लिप्त होकर हरिनाम से विमुख हो जाना।

निष्कर्ष:

इन 64 नाम अपराधों से बचकर यदि कोई भक्त श्रद्धा और प्रेम से हरिनाम का जप करता है, तो वह शीघ्र ही भगवत्कृपा प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अनजाने में अपराध कर बैठता है, तो उसे वैष्णवों से क्षमा मांगनी चाहिए और निष्ठापूर्वक हरिनाम जप जारी रखना चाहिए।

“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।”

यह महामंत्र सभी अपराधों को नष्ट कर सकता है और जीव को परमधाम तक पहुंचा सकता है।

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