श्रीमद् भगवतगीता अद्वितीय ग्रंथ है, जो जीवन के गूढ़ रहस्यों और मानवता के कल्याण का संदेश देता है। इसके प्रत्येक श्लोक में एक दिव्य संदेश छुपा है, जो हमारे जीवन के मार्ग को प्रकाशित करता है। यहाँ 10 प्रमुख श्लोकों को उनके अर्थ और संबंधित दोहों के साथ प्रस्तुत किया गया है:
1. श्लोक:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा, ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.47)
अर्थ:
तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता मत करो। न ही कर्म के फल को कारण बनाकर कर्म करने में संलग्न हो, और न ही अकर्मण्यता (कुछ न करने) की ओर आकर्षित हो।
दोहा:
कर्म किए जा फल की चिंता, मत कर साधक तू। फल तो तेरे प्रभु के हाथ, तू बस भज मनु हृदय गू।।
2. श्लोक:
“योगस्थः कुरु कर्माणि, सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा, समत्वं योग उच्यते।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.48)
अर्थ:
हे धनंजय! योग में स्थित होकर कर्म करो, और आसक्ति का त्याग करो। सफलता और असफलता में समान रहने को ही योग कहते हैं।
दोहा:
सफल असफल जो भी हो, संतुल मन रखना। योग यही है साधना, सच्चा ध्येय जपना।।
3. श्लोक:
“वसांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 2.22)
अर्थ:
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को प्राप्त करती है।
दोहा:
देही है अनंत, यह तन है क्षणिक वस्त्र। जीवन का यह सत्य है, मन में धर प्रभु मंत्र।।
4. श्लोक:
“यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.7)
अर्थ:
हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं (भगवान) स्वयं अवतार लेकर प्रकट होता हूँ।
दोहा:
धर्म जहां हो लुप्त, अधर्म करे प्रहार। प्रभु धरा अवतार तब, मिटा दे अंधकार।।
5. श्लोक:
“परित्राणाय साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.8)
अर्थ:
साधुओं के परित्राण (रक्षा) और दुष्टों के विनाश के लिए, तथा धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में अवतरित होता हूँ।
दोहा:
साधु की रख रक्षा, दुष्टों का करे संहार। धर्म संस्थापक प्रभु, आते युग-युग बार।।
6. श्लोक:
“सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 18.66)
अर्थ:
सब धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, चिंता मत करो।
दोहा:
सब धर्मों को त्याग दे, शरण प्रभु की जा। पाप सभी हर लेंगे, तू बस नित गुण गा।।
7. श्लोक:
“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां, ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां, योगक्षेमं वहाम्यहम्।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 9.22)
अर्थ:
जो भक्त मेरे प्रति अनन्य भाव से चिंतन और भजन करते हैं, उनके योग-क्षेम (आवश्यकताओं की पूर्ति) का भार मैं स्वयं वहन करता हूँ।
दोहा:
जो भजे अनन्य भाव से, रखे सदा संतोष। प्रभु करें योगक्षेम, न रहे जीवन में दोष।।
8. श्लोक:
“समोऽहं सर्वभूतेषु, न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः। ये भजन्ति तु मां भक्त्या, मयि ते तेषु चाप्यहम्।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 9.29)
अर्थ:
मैं सभी प्राणियों के प्रति समान हूँ, न कोई मुझे प्रिय है और न ही कोई अप्रिय। लेकिन जो भक्त मुझे प्रेम से भजते हैं, वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ।
दोहा:
समान प्रभु सबके लिए, नहीं किसी से बैर। जो भजे प्रेम भाव से, उनसे स्नेह घनेर।।
9. श्लोक:
“उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 6.5)
अर्थ:
मनुष्य को स्वयं द्वारा ही अपने आत्मा का उद्धार करना चाहिए, न कि स्वयं को पतन की ओर ले जाना चाहिए। आत्मा ही मनुष्य की मित्र है और आत्मा ही उसका शत्रु है।
दोहा:
मन ही बंधन और मुक्ति, मन ही भव से पार। मन को साध ले साधना, हो जीवन का उद्धार।।
10. श्लोक:
“ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविः, ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं, ब्रह्मकर्मसमाधिना।।”
(श्रीमद्भगवद्गीता 4.24)
अर्थ:
यज्ञ में अर्पित होने वाली वस्तु ब्रह्म है, वह जो अर्पण करता है, वह भी ब्रह्म है, और जो अग्नि में हवन होता है, वह भी ब्रह्म है। ऐसे कर्म करने वाले व्यक्ति को केवल ब्रह्म ही प्राप्त होता है।
दोहा:
यज्ञ हो अर्पित ब्रह्म में, ब्रह्म ही है कर्तार। जो यह समझे भावना, वही हो पारावार।।
इन श्लोकों और दोहों को जोड़ने से गीता के संदेश को सरल और हृदयस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, जिससे पाठक को गीता का मर्म समझने में अधिक सुविधा होगी।
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